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Home » अतीत से विंध्य की राजनीति: आजादी के बाद से ही राष्ट्रीय राजनीति में रहा विंध्य का वर्चस्व…
उमरिया

अतीत से विंध्य की राजनीति: आजादी के बाद से ही राष्ट्रीय राजनीति में रहा विंध्य का वर्चस्व…

Vindhya VaniBy Vindhya VaniMarch 28, 2024Updated:March 28, 2024No Comments6 Mins Read
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रीवा। भले ही पंजाब, सिंधु, दोआब व मालवा क्षेत्र की माटी को उच्च उर्वरा शक्ति वाला माना जाता हो, लेकिन विंध्य की माटी कभी कमतर नहीं रही। इस माटी की महक वैश्विक रही है। चाहे वह सफेद शेर देने की बात हो या फिर सुंदरजा आम की। चाहे आजादी के आंदोलन की बात हो या फिर आजादी के बाद के सामाजिक आंदोलनों की पृष्ठभूमि की बात हो। देश के पटल पर विंध्य का नाम मोटे अक्षरों में लिखा है। खासतौर से देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में बात करें तो इस माटी के कई नेताओं ने देश के राजनीतिक पटल पर अपनी अलग छाप छोड़ी है। केवल प्रदेश ही नहीं, केंद्र की राजनीति में भी विंध्य का बड़ा दखल था। इस माटी से पले-बढ़े और सीखे नेता न केवल प्रदेश के मुखिया बने, अपितु केंद्र की राजनीति के भी मूल बने। मुख्यमंत्री के साथ ही राज्यपाल, उप मुख्यमंत्री व विधानसभा अध्यक्ष का पद भी विंध्य के खाते में आ चुका है। 1980 व 1990 के दशक में विंध्य की राजनीति चरम पर थी। पूरा देश विंध्य की राजनीति व राजनेताओं का लोहा मानता था। आज भी विंध्य की माटी कद्दावर नेताओं से खाली नहीं है।

   

 

shambhu nath shukla

 

GULSHER AHMAD

विंध्य की राजनीतिक पृष्ठभूमि के संबंध में बात करें तो आजादी के बाद से ही देश के राजनीतिज्ञ यहां के नेताओं का लोहा मानते रहे हैं। साल 2010 तक केंद्रीय राजनीति में विंध्य का दखल रहा, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के अवसान के बाद विंध्य का राजनीतिक स्तर कमजोर जरूर हुआ लेकिन गिरीश गौतम के विधानसभा अध्यक्ष व राजेंद्र शुक्ल के उप मुख्यमंत्री बनने के बाद फिर से वर्चस्व कायम है। 2018 में श्रीनिवास तिवारी के निधन के बाद विंध्य की राजनीति कमजोर जरूर हुई थी लेकिन अब वह कमी भी पूरी हो गई है। कांग्रेस से अर्जुन सिंह व श्रीनिवास तिवारी के निधन के बाद विंध्य के लोगों की निगाह अजय सिंह राहुल पर टिकी थी, लेकिन वह 2018 के विधानसभा व 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हालांकि 2023 के विधानसभा चुनाव में फिर वह चुनाव जीत गए। भाजपा शासनकाल में रीवा के राजेंद्र शुक्ल की भी प्रदेश की सियासत में गहरी पैठ भी उतनी ही दिख रही है, जितना पूर्व के नेताओं की थी। मुख्यमंत्री की कुर्सी में बदलाव होने के बावजूद रीवा के राजेंद्र शुक्ल का कद बढ़ाकर उप मुख्यमंत्री का दायित्व सौंपना नि:संदेह उनके राजनीतिक वर्चस्व को दर्शाता है। इधर कांग्रेस में भी विंध्य के कमलेश्वर पटेल को कांग्रेस के केंद्रीय वर्किंग कमेटी में स्थान मिलना विंध्य की राजनीतिक ताकत को प्रदर्शित करता है। हालांकि 2023 के विधानसभा चुनाव में हार मिलने से वह कांग्रेस से पिछड़ा वर्ग का नेता बनने में पिछड़ गए।

 

GOVIND NARAYAN SINGH

 

 

ARJUN SINGH

 

तीन दशक तक श्रीनिवास-अर्जुन की जोड़ी का रहा नाम : 1980-1990 के दशक में, यहां तक 2010 तक विंध्य के इन दोनों नेताओं की प्रदेश व केंद्र की राजनीति में काफी दखल रही। दोनों थे तो एक दल के, लेकिन राजनीतिक भिन्नता दिखाकर दोनों ने यहां की अवाम के दिलोदिमाग में राज किया। 80 के दशक में मुख्यमंत्री के रूप में अर्जुन सिंह की धाक रही तो 1993 के बाद विधानसभा अध्यक्ष के रूप में श्रीनिवास की तूती बोली। 2003 के विधानसभा चुनाव व उसके बाद लोकसभा चुनाव के बाद दोनों नेताओं का प्रभुत्व जनता के बीच तो कम हुआ, लेकिन राजनीति में गहरी पैठ के कारण वे अपनी सियासत चलाते रहे।

shri nivas tiwari
girish gautam

 

 

 

 

भाजपा के रणनीतिकार थे दादा सुखेंद्र सिंह : 1980 में भाजपा का उदय हुआ। हालांकि भाजपा ने ज्यादा जोर 1990 के दशक में पकड़ा, जब सुंदरलाल पटवा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। तत्समय विंध्य में भाजपा नेताओं में दादा सुखेंद्र सिंह का रसूख था। वह विंध्य में भाजपा के रणनीतकार माने जाते थे।

 

 

 

 

 

इनका भी था ऊंचा कद : विंध्य की तत्कालीन राजनीति में कुछ अन्य नेताओं का भी कद ऊंचा था। इनमें स्व. अर्जुन सिंह के पिता शिव बहादुर सिंह (पं. नेहरू के प्रथम मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री ), पंडित राम किशोर शुक्ल शहडोल (मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री), राजभानु सिंह तिवारी, चंद्र प्रताप तिवारी सीधी, कृष्णपाल सिंह, मुनि प्रसाद शुक्ल, पं.सीता प्रसाद शर्मा, दलवीर सिंह, राजमणि पटेल, रामहित गुप्ता का राजनीतिक कद किसी से छिपा नहीं है।

 

rajendra shukla

 

 

विंध्य की माटी ने अपने बेटों को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने के लिए अभिसिंचित किया। आजादी के बाद विंध्य प्रदेश के गठन के बाद विंध्य प्रदेश के पहले और आखिरी मुख्यमंत्री बनने का गौरव शहडोल के पं.शंभूनाथ शुक्ल को मिला। बाद में वह कांग्रेस शामिल हुए और रीवा संसदीय क्षेत्र से मंत्री बने। 1956 में विंध्य प्रदेश के विलय के बाद रामपुर बघेलान (सतना) के गोविंद नारायण सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालांकि उनका कार्यकाल छोटा था, लेकिन संभाग मुख्यालय रीवा में विश्वविद्यालय का उपहार देकर विंध्य के अग्रणी पंक्ति के नेताओं में शुमार हो गए। 80 के दशक में चुरहट (सीधी) के कुंवर अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। वह तीन बार मुख्यमंत्री बने। केंद्रीय राजनीति में उनकी दखल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें दिल्ली व पंजाब का राज्यपाल भी बनाया गया। पंजाब का राज्यपाल तब बनाया गया जब खालिस्तान का मुद्दा उबल रहा था और देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी। बाद में कई राजनीतिक परिवर्तन भी हुए, लेकिन अपनी कुशाग्र व राजनीतिक चातुर्यता के कारण वह केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री बने। गुलशेर अहमद राज्यपाल रहे तो स्व. श्रीनिवास तिवारी दो बार व गिरीश गौतम एक बार विधानसभा अध्यक्ष रहे। अमरपाटन विधायक राजेंद्र सिंह को भी विधानसभा उपाध्यक्ष तो अजय सिंह राहुल को नेता प्रतिपक्ष बनने का गौरव हासिल हो चुका है ।

 

 

kamleswar patel

 

 

 

आजादी के बाद देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रादुर्भाव के समय से विंध्य की राजनीति का अलग स्वरूप था। यह सोशलिस्टों का गढ़ था। 1950 के दशक में यमुना-जोशी-श्रीनिवास (यमुना प्रसाद शास्त्री, जगदीश चंद्र जोशी व श्रीनिवास तिवारी) के नारे का नाम देश में सामाजिक आंदोलनों के प्रणेता कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण ने दिया था। इन नेताओं ने छात्र जीवन से ही किसान आंदोलन व जमींदारी प्रथा के विरोध में बड़ा आंदोलन किया था, जिसकी गूंज केंद्र तक पहुंंची थी। हालांकि तत्समय इन नेताओं के अलावा कप्तान अवधेश सिंह, गोविंद नारायण सिंह, अर्जुन सिंह, दादा सुखेंद्र सिंह नागौद, कृष्णपाल सिंह, रामकिशोर शुक्ल का नाम आता है। इनमें कुछ सोशलिस्ट तो कुछ जनसंघ के नेता थे। बाद में समय के साथ कुछ लोग कांग्रेस तो कुछ जनसंघ के भाजपा में विलय के बाद भाजपाई हो गए। इनके साथ ही इनके अनुयायियों ने भी उनके साथ पार्टी का चोला ओढ़ा।

     
   
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